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ईरान-इजराइल संघर्ष: इतिहास, विचारधारा और आज का तनाव

1979 में शाह की सत्ता खत्म होने के बाद जब खुमैनी की अगुवाई में इस्लामी गणराज्य बना, तो उन्होंने इजराइल को “छोटा शैतान” और अमेरिका को “बड़ा शैतान” कहा। खुमैनी ने इजराइल को एक अवैध राष्ट्र माना और फिलिस्तीन मुद्दे को प्रमुखता दी। ईरान ने इजराइल से सारे संबंध तोड़ दिए और उसे मान्यता देना बंद कर दिया।

Published: 17:51pm, 24 Jun 2025

ईरान और इजराइल के बीच जो ताजा टकराव हुआ, वह केवल दो देशों की लड़ाई नहीं है, बल्कि यह पश्चिम एशिया की सबसे जटिल और लंबे समय से चली आ रही राजनीतिक लड़ाइयों में से एक है। एक ओर है ईरान, हजारों साल पुरानी सभ्यता वाला देश और दूसरी ओर इजराइल, एक ऐसा राष्ट्र जिसे यहूदी प्रवासियों के लिए 1948 में स्थापित किया गया था।

इन दोनों देशों की न तो भौगोलिक सीमाएं आपस में मिलती हैं, न ही इनका सैकड़ों साल पुराना दुश्मनी का इतिहास है। फिर भी आज दोनों के बीच भारी दुश्मनी है जो विचारधारात्मक, राजनीतिक और रणनीतिक कारणों से लगातार बढ़ती जा रही है। इस संघर्ष को समझने के लिए हमें उनके आपसी इतिहास को समझना जरूरी है।

इस्लामिक क्रांति से पहले दोस्ताना संबंध

ईरान में 1979 में हुई इस्लामिक क्रांति से पहले दोनों के संबंध काफी अच्छे थे। दरअसल, जब 1948 में इजराइल बना, तो ईरान तुर्की के बाद उसे मान्यता देने वाला दूसरा मुस्लिम बहुल देश बना। इजराइल की रणनीति थी कि वह अरब देशों से घिरे होने के बावजूद किसी गैर-अरब देश से दोस्ती बनाए रखे। उस समय ईरान के शाह मोहम्मद रजा पहलवी की सरकार ने इजराइल के साथ मिलकर कई सहयोग किए। उन्होंने इराकी यहूदियों को इजराइल में बसने के लिए रास्ता भी दिया। दोनों देशों ने व्यापार, खुफिया सूचनाएं साझा की और अमेरिका की मदद से सीआईए और ईरान की खुफिया एजेंसी ‘सावाक’ के जरिए सैन्य सहयोग भी किया।

इस्लामिक क्रांति के बाद दुश्मनी की शुरुआत

मगर यह दोस्ती ज्यादा दिन नहीं चली। ईरान में धार्मिक नेता अयातुल्ला खुमैनी और उनके समर्थकों को इजराइल के साथ यह नजदीकी रास नहीं आई। 1979 में शाह की सत्ता खत्म होने के बाद जब खुमैनी की अगुवाई में इस्लामी गणराज्य बना, तो उन्होंने इजराइल को “छोटा शैतान” और अमेरिका को “बड़ा शैतान” कहा। खुमैनी ने इजराइल को एक अवैध राष्ट्र माना और फिलिस्तीन मुद्दे को प्रमुखता दी। ईरान ने इजराइल से सारे संबंध तोड़ दिए और उसे मान्यता देना बंद कर दिया। इसके बाद ईरान ने इजराइल विरोधी संगठनों जैसे हिज्बुल्लाह (लेबनान में) और बाद में हमास (गाजा में) और हूती (यमन) को परोक्ष समर्थन देना शुरू किया।

ईरान-इराक युद्ध के दौरान छिपा सहयोग

हालांकि, 1980 से 1988 तक चले ईरान-इराक युद्ध के शुरुआती वर्षों में इजराइल ने गुप्त रूप से ईरान को हथियार मुहैया कराए। यह ‘ईरान-कॉन्ट्रा’ घोटाले का हिस्सा था, लेकिन जैसे ही ईरान और इराक के बीच युद्धविराम हुआ, यह संबंध खत्म हो गया। इसके बाद ईरान ने अरब और मुस्लिम देशों का समर्थन पाने के लिए इजराइल विरोधी रुख और मजबूत कर लिया।

हिज्बुल्लाह और ‘रेजिस्टेंस फ्रंट’ की भूमिका

1982 में जब इजराइल ने लेबनान पर हमला किया, तो ईरान ने तुरंत वहां की शिया आबादी की मदद के लिए अपनी सेना इस्लामिक रेवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) भेजी। ईरान ने हिज्बुल्लाह नामक संगठन को खड़ा किया, जो शुरुआत में इजराइल के खिलाफ एक स्थानीय प्रतिरोध था, लेकिन जल्दी ही यह ईरान का एक ताकतवर ‘प्रॉक्सी’ बन गया। हिज्बुल्लाह ने इजराइल के साथ कई बार हिंसक संघर्ष किए हैं और आज भी वह इजराइल की उत्तरी सीमा पर बड़ा खतरा माना जाता है। इसके अलावा ईरान हमास और फिलिस्तीनी इस्लामिक जिहाद जैसे संगठनों को भी समर्थन देता रहा, जो इजराइल पर हमले और आतंकवादी गतिविधियां चलाते रहे हैं।

परमाणु कार्यक्रम और नई चिंताएं

बीते कुछ वर्षों में ईरान का परमाणु कार्यक्रम इजराइल के लिए सबसे बड़ा खतरा बनकर उभरा है। इजराइल को डर है कि अगर ईरान के पास परमाणु हथियार आ गए तो उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। ईरान का कहना है कि उसका कार्यक्रम सिर्फ ऊर्जा और चिकित्सा के लिए है, लेकिन इजराइल और पश्चिमी देशों की खुफिया एजेंसियां मानती हैं कि ईरान गुप्त रूप से परमाणु बम बनाने की कोशिश कर रहा है। 2015 में जब ईरान ने अमेरिका और अन्य देशों के साथ मिलकर ‘जॉइंट कॉम्प्रिहेन्सिव प्लान ऑफ एक्शन’ (JCPOA) पर हस्ताक्षर किया, तो इससे ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर कुछ रोक लगी और उस पर लगे आर्थिक प्रतिबंध हटाए गए, लेकिन इजराइल इस समझौते के खिलाफ था। 2018 में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी इस समझौते से बाहर निकलने का ऐलान कर दिया। इसके बाद ईरान ने धीरे-धीरे फिर से अपने परमाणु कार्यक्रम को तेज कर दिया।

इस बार की लड़ाई में ईरान और इजराइल के बीच सीधे युद्ध की बजाय छद्म युद्ध और हमलों की श्रृंखला चली, जिसमें दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के खिलाफ सैन्य और साइबर हमले किए। बीते एक दशक में इजराइल ने सीरिया और लेबनान में ईरान समर्थित ठिकानों पर 1000 से अधिक हवाई हमले किए हैं, जबकि ईरान समर्थित संगठनों ने इजराइल पर हजारों रॉकेट दागे हैं। 12 दिन की ताजा जंग में दोनों ओर से सैकड़ों मिसाइल और ड्रोन हमले हुए। विभिन मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, इस जंग में करीब 900 से ज्यादा लोगों की जान गई जिनमें से 800 ईरानी और उसके सहयोगी गुटों के और 100 के आस पास इजराइली नागरिक व सैनिक शामिल हैं।

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 24 जून को ऐलान किया कि दोनों देशों ने ‘पूरी तरह से संघर्ष विराम’ पर सहमति जताई है। हालांकि, ईरान की तरफ से कुछ ही घंटे पहले तक यह कहा जा रहा था कि अभी कोई औपचारिक समझौता नहीं हुआ है। यह संघर्ष यह दिखाता है कि यह लड़ाई केवल युद्ध के मैदान की नहीं, बल्कि विचारधारा, प्रभाव क्षेत्र और अस्तित्व पर खतरे की भी है, जो किसी भी क्षण फिर से भड़क सकती है।

लेखक: नुरुल कौसेन, पत्रकार

Yuvasahkar Desk

यह लेख "Yuvasahakar Desk" द्वारा लिखा गया है

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