होली की आहट दबे पांव नहीं, बल्कि सररर सररर और पत्तों के झड़ने के साथ होती है। पेड़ पत्ते उतार नंगे होने लगे हैं और बिन चड्ढी के फूल खिले हैं फूल खिले हैं। सारी सीमाएं तोड़कर प्रकृति होली खेलने उतारु हो गई है। इसी में उसे मजा आ रहा है। भंवरे फूलों के पराग से होली खेल रहे हैं और गा रहे हैं ‘जाने फिर कब मिलोगे? फूलों पर उड़कर आने वाले पराग से नया जीवन मिल रहा है। ऐसे में भला हम कहां से काबू में रहते। भौजी की कौन कहे…. काकी भी फागुन में राह चलते किसी को भी खुलकर भला बुरा कहे (गरिया) देती हैं। गांव से लेकर महानगरों की नालियां तक हरी, लाल और पीली होकर बहने लगी हैं। यही रंग जब सिर चढ़कर बोले तो जानो होली है। फागुन में आम तो क्या खास भी बौरा गये हैं। जबान भदेस होने लगी है। किसी की भी चुटकी लेकर गुदगुदा देना आम हो जाए तो कोई खास नहीं रह जाता है। मदनोत्सव में रंग में डूबने के लिए किसी कला की ज़रूरत नहीं।
खिलखिलाते फूलों को देख आम तक बौरा गए हैं। फागुनी हवाएं गरमाने लगी हैं। अल्हड़ लड़कियों सी मस्त हवाएं किसी पर भी धूल उड़ाने से बाज नहीं आ रही हैं। पेड़ों और फूलों से ठिठोली करती हवाएं पीले पड़ चुके पत्तों को झकझोर कर नीचे गिराने से बाज नहीं आ रही हैं। तभी तो फागुन में ‘बाबा देवर लागैं’ वाली कहावतें राह चलते सुनने और देखने को मिलने लगी हैं। मोबाइल में इसी तरह की रील बजने लगी है। कऩॉट सर्कस वाले गोलाकार बाजार में हवाएं अजब-गजब की गंध सुगंध उड़ाती उमड़ घुमड़ रही हैं। सबको सहलाकर हंसती, खिलखिलाती और परेशान करती हवाएं फुदकती बालाओं और बालकों को किसी और ही दुनिया में पहुंचाने की जुगत में जुटी हैं। ऐसे में कुछ शरमा रहे हैं, तो कुछ इठला रहे हैं। ज्यादातर को कैफी आजमी की यह पंक्ति ‘मिलो न तुम तो हम घबराएं, मिलो तो आंख चुराएं हमें क्या हो गया है’ भली लगने लगी हैं। इस मौसम में सकुचाना और शरमाना मना है।
अलसाए-अलसाए फगुआए लोगों को कहीं चैन नहीं। उनीदी सी नींद में खोये लोगों के लिए फागुन न जाने किस नशे में डुबाए दे रहा है। मगर वे इससे बाहर निकलने को राजी नहीं और डूबने को तैयार नहीं। ऐसी स्थिति को कोई शब्द दें तो भला क्या? जो इससे गुजर रहा वो इसे शब्द देने की कृपा करे। न खाने का मन करे और न पीने का। न सोने का मन करे न जगने का। इसी में पड़े रहने में ही मजा, जिसे बोलें तो वह है फागुन।।
रंग रसिया… हो रंग रसिया, कहां लगाओं रंग रसिया….। होलिया में उड़े रे गुलाल…..कहियो रे मंगेतर से….। का कहियो…बाबू? का करेगा मंगेतर? यही मौसम है जब लोगों के बोलने की तमीज बदल जाती है। फागुन मे बाबा देवर लागैं, किसी को यह भाषा जानबूझकर बुरी लगती है तो कोई इसे मौसम (फागुन) का असर मानकर मजा लेकर आगे बढ़ लेता है। जबान ही है जो न जाने कितनो से क्या-क्या बोल जाती है। इसी मौसम में चुहलबाजी की जबान गुदगुदाती है। बार-बार अकेले में हंसाती है। चुटकी और गुदगुदी के बीच रिश्ते हरिया जाते हैं। इसी से शुरू होती है तोता-मैना की कहानी………..।
एक डाल पर तोता बैठे, एक डाल पर मैना….बोलो है ना…। गुटरू गुटरू कौन कर रहा… ना जाने हैं कौना? उल्लुओं की भी है भरमार। अडबडंग, ऊंटपटांग और कभी कभी बेसिर पैर की बातें ज़ेहन में आने लगे तो जानो होली है। ऐसा न हो तो भांग छानिए और मस्त रहिए। फागुन में कोई न कोई नशा हो ही जाता है।
लेखक- सुरेंद्र प्रसाद सिंह