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पृथी पाल सिंह की रॉबिन हुड सरीखी सोच ही बनी उनके दुनिया से असमय जाने का कारण

संदीप मिश्रा ने अपनी किताब गन्ड डाउन :मर्डर ऑफ एन ओलंपियन में बयां की पृथीपाल की दर्दनाक कहानी

पृथी पाल सिंह निर्विवाद रूप से भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के अपने समय के बेहतरीन पेनल्टी कॉर्नर में से एक थे। वह जितने महान हॉकी ओलंपियन थे उतनी ही विरोधाभासी  थी उनकी शख्सियत। भारत को 1960 के रोम ओलंपिक में रजत, 1964 के टोक्यो ओलंपिक में स्वर्ण और 1968के मैक्सिको में दो कप्तान में खुद एक के रूप में कांसा। सबसे दिलचस्प बात यह है भारत के संकटमोचक कहे जाने वाले पेनल्टी कॉर्नर किंग पृथीपाल सिंह ने जिन तीन ओलंपिक में भारत की नुमाइंदगी कर उसमें पदक दिलाए ही इन सभी में टॉप स्कोरर भी रहे। 28  जनवरी, 1932 को गुरुनानक जी की जन्मस्थली ननकाना साहिब (अब पाकिस्तान) में जन्में  पृथी पाल सिंह का हॉकी करियर जितना चमकदार रहा उनकी हत्या उतनी ही उतनी ही खौफनाक और दर्दनाक रही। पृथी पाल सिंह की हत्या उनके ही छात्रों ने पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू) में 20 मई, 1983 को गोली मार कर दी। पृथी पाल सिंह शुरू में रेलवे और फिर पंजाब पुलिस में रहे और इसके बाद पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू) में आए। सच तो यह है कि पृथी पाल  सिंह की रॉबिनहुड सरीखी उनकी सोच ही उनके दुनिया से असमय मात्र 51 बरस की उम्र में जाने का कारण बनी।
पृथी पाल के जितने मुरीद और दोस्त थे उनकी साफगोई और अपनी ही बात को हर वक्त सही मानने और ठहराने की उनकी जिद ही उनकी सबसे बड़ी दुश्मन साबित हुई। पृथी पाल सिंह का परिवार विभाजन से पहले ननकाना साहिब (पाकिस्तान) से भारत आ गया था लेकिन वह इस बात से हमेशा नाराज रहे थे कि उन्हें अपनी जन्म स्थली को क्यों छोड़ना पड़ा। जब भारत 1960 में रोम ओलंपिक में पहली बार पाकिस्तान से फाइनल में हारा तो वह खुद से खफा थे कि उन्होंने पाकिस्तान से हिसाब चुकता करने का मौका गंवा दिया। जब 1964 ओलंपिक में भारत ने पाकिस्तान को फाइनल में हरा स्वर्ण वापस जीता तो भी अपनी इस खुशी को बहुत जाहिर नहीं किया। पृथी पाल सिंह को पीएयू की छात्राएं ‘वीर जी कह कर सम्मान से बुलाती थी।
उनकी कदकाठी इतनी बड़ी थे वह जिस तरह मैदान पर जाते तो लोग उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर सम्मउान में रास्ता खाली कर देते थे। पीएयू, लुधियाना में  डीन स्टूडेंटस वेलफेयर रहते पृथी पाल की सोच थी लोग कॉलेज में या तो पढ़ने आते हैं या फिर खेलने। संदीप की इस किताब में साफ है  पृथी पाल सिंह कॉलेज को  राजनीति से एकदम दूर रखना था। पीएयू के छात्र संघ के अध्यक्ष रहे पृथीपाल सिंह रंधावा की सोच भी एकदम साफ थी कि कॉलेज में छात्रों की राजनीति की अपनी जगह है। इसको लेकर दोनों में विरोध था। जब संदेहास्पद स्थितियों में रंधावा की मौत हुई तो इसके लिए ओलंपियन पृथी पाल को दोषी ठहराया गया। हालांकि यह भी कहा जाता है  कि रंधावा की मौत जिस कार की डिग्गी में उनका मुंह बंद कर ले गया था उसमें सांस घुटने से हुई। फिर पृथी पाल को रंधावा की मौत का जिम्मेदार मानने वाले अपने समय के बेहतरीन हैंडबॉल खिलाड़ी और तब छात्र राजनीति में सक्रिय प्यारा सिंह की गोली मार कर हत्या की गई तो इसके लिए भी उन्हें जिम्मेदार माना गया। पृथी पाल ने हालांकि इससे साफ इनकार किया। इसके बाद पृथी पाल को खुले तौर पर मारने का ऐलान करने वाले पोस्टर भी लगे लेकिन वह इससे बेखौफ रहे। अंतत: उनकी हत्या कर दी गई।  काश वह सतर्क रहते तो मुमकिन है वह आज भी जिंदा रहते।
यह भारतीय हॉकी और खेल की बदकिस्मती ही है कि हमने पृथी पाल सिंह को अपने जेहन और इतिहास से ही लगभग मिटा दिया। पृथी पाल सिंह की हत्या और बतौर खिलाड़ी उनकी हॉकी कहानी को हॉकी लेखक संदीप मिश्रा ने अपनी नई किताब गन्ड डाउन: मर्डर ऑफ एन ओलंपियन में बयां किया है। इस पुस्तक का विमोचन मंगलवार को भारत के पूर्व ओलंपिक हॉकी कप्तान दिलीप तिर्की ने यहां एक पांच सितारा होटल में किया। पुस्तक के विमोचन के मौके पर पृथी पाल सिंह के साथी रहे पूर्व ओलंपियन हरबिंदर सिंह, उनके साथ पीएयू में उनके साथी रहे रिटायर प्रोफेसर रहे हरचरण सिंह बैंस, ओलंपियन हॉकी इंडिया के अध्यक्ष दिलीप तिर्की, लगातार दो ओलंपिक में भारत की ओलंपिक में कप्तानी करने वाले परगट सिंह, दिलीप तिर्की व अजायब सिंह टिवाणा भी मौजूद रहे।पुस्तक के लेखक संदीप मिश्रा कहते हैं, ‘ यह पुस्तक अतीत की कहानी नहीं बल्कि आज का भी आइना है। दरअसल मेरे पिता दुर्गा प्रसन्न मिश्रा ने बचपन में ही पृथी पाल सिंह की कहानी बता कर मुझे इससे जोड़ा। तब मैंने सोचा नहीं था कि मैं कभी पृथी पाल किताब लिखूंगा। मेरी इस किताब को आप फिल्म के दो हिस्सों में बांट कर देख सकते हैं। इसका पहला हिस्सा ओलंपिक में उनकी नायाब उपलब्धियों के बारे में है जबकि उनकी खौफनाक हत्या के बारे में है।वह  एकदम बेबाक अपनी बात कहते थे। वह राजनीति से एकदम दूर रहते थे और यही उनकी सबसे बड़ी दिक्कत साबित हुई। उनकी जिंदगी सिर्फ एक हॉकी खिलाड़ी की नहीं बल्कि भारतीय खेल की जटिल सच्चाइयों को कहानी है।

पुस्तक का विमोचन करते हुए पूर्व ओलंपियन दिलीप तिर्की ने कहा, ‘ पृथी पाल जी की जब 1983 में हत्या कर दी गई तब मैं मातर् छह बरस का था।हां बड़ा होने पर जाना कि वह भारत ही नहीं दुनिया के बेहतरीन फुलबैक और पेनल्टी कॉर्नर हिटर थे। शुरू में मैंने सुरजीत सिंह और परगट सिंह के बारे में ही पड़ा दोनों भारत के बेहतर फुलबैक थे। संदीप की यह खिताब आज की पीढ़ी को पृथी पाल जी के बारे में बहुत कुछ जानने का मौका देगी।‘पृथी पाल जिद्दी थे,सामना अपने से ज्यादा जिद्दी से हो गया : परगट

भारत के पूर्व ओलंपिक कप्तान परगट सिंह कहते हैं, ‘ पृथी पाल की प्रतिबद्धता का जवाब नहीं था और उन्होंने कभी हालात से समझौता नहीं किया और हॉकी के मैदान पर ती ओलंपिक में भागीदारी और तीनों में पदक इस पर कोई भी फख्र कर सकता है। पृथी पाल सिंह जिद्दी थे लेकिन उनका सामना अपने से भी ज्यादा जिद्दी से हो गया। सभी आप से  जिद्दी लोगों से हुआ।पृथी पाल सिंह बस यह समझ नहीं पाए कि किसी भी विवाद को हल करने के लिए संवाद जरूरी है। आप अपनी राय रख सकते हैं लेकिन हर वक्त हर कोई आपस सहमत हो यह जरूरी नहीं है। सच तो यह है कि हमें हीरो बनाना आता है लेकिन हम उन्हें संभालना नहीं जानते। यह बात पृथी पाल सिंह पर एकदम सटीक बैठती है। संदीप की किताब के माध्यम से पृथी पाल को इतना जानने समझने का मौका मिला। बतौर खिलाड़ी और उनकी शख्सियत की बाबत हमने जाना। पृथी पाल सिंह अपनी बात पर काबिज रहते थे। वह हमेशा व्यवस्था से लड़े  और उसके खिलाफ खड़े हुए।   हकीकत यह है कि आप यदि किसी की बात से सहमत नहीं है तो उसे अपनी बात समझाने की कोशिश करनी चाहिए। पृथी पाल सिंह के दिल में जो होता वही जुबान पर भी होता है। यह बात ज्यादातर लोगों को रास नहीं हाती है। । आप अपनी राय रख सकते हैं लेकिन हर वक्त हर कोई आपस सहमत हो यह जरूरी नहीं है।
1964 ओलंपिक का स्वर्ण पृथी पाल की बदौलत ही जीते : हरबिंदर
पृथी पाल सिंह के साथ 1964 में टोक्यो ओलंपिक में  खेलने वाले स्ट्राइकर हरबिंदर सिंह ने कहा, ‘ पृथी पाल सिंह अपने समय के बेजोड़ फुलबैक और पेनल्टी कॉर्नर विशेषज्ञ थे। पृथी पाल के टीम में रहते हमारी भारतीय टीम का आत्मविश्वास दुगुना हो जाता था। हम सही मायनों में 1964 का स्वर्ण पृथी पाल सिंह की बदौलत ही जीते। वह भारत के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ब रहे और फुलबैक के लिए प्रेरणा। पृथीपाल जब भारतीय टीम में रहते तो पूरी टीम हमेशा विश्वास से सराबोर रहती थी। पृथी पाल सिंह ने ओलंपिक सवल केआखिरी क्षणों में पेनल्टी कॉर्नर पर हिट जमाया और गोलरक्षक के पैड से लग कर लौटती गेंद को मोहिंदर लाल ने गोल में डाल कर भारत को फिर से स्वर्ण जिताया। जहां तक 1968 के ओलंपिक की बात है तो वहां हमें घटिया अंपायरिंग ने ही स्वर्ण पदक बरकरार रखने से महरूम रखा। न्यूजीलैंड के खिलाफ ओलंपिक में पृथी पाल की पेनल्टी कॉर्नर पर जिस हिट को अमान्य कर गोल नहीं दिया उसी तरह की हिट पर पाकिस्तान के पेनल्टी कॉर्नर हिटर की हिट पर उसे गोल दे दिया गया। पृथी पाल योद्धा की तरह समर्पित खिलाड़ी थे। भले ही 1968 के ओलंपिक में गुरबख्श  दूसरे कप्तान थे लेकिन पूरे समय मैच पर नियंत्रण पृथी पाल का ही रहा। एक रोचक किस्सा बताता हूं एक बार हॉलैंड की टीम भारत  में टेस्ट सीरीज खेलने आई। हमें उसके खिलाफ ग्वालियर में टेस्ट खेलना था और दौरे लिए जेब खर्च एक रूपया था। तब  पृथी पाल सिंह ने कहा कि जब इसे दुगुना नहीं किया जाएगा हम नहीं खेलेंगे और इस मांग को अंतत: मान लिया गया। हॉलैंड से मेच जीतने के बाद हम सभी इस बात पर हंस रहे थे कि हम क्यों एक रुपये के लिए लड़ रहे थे।‘
दिल तोड़ता है शीर्षक : बैंस
उनके साथी रहे रिटायर प्रोफेसर रहे हरचरण सिंह बैंस कहते हैं, ‘मुझे संदीप की किताब का शीर्षक दिल तोड़ने वाला लगता है। मेरा मानना है कि किताब का शीर्षक पृथी पाल सिंह की शख्सियत से न्याय नहीं करता। हां मैं मानता हूं कि उनके जीवन का एक पक्ष निराश करता है। पृथी पाल सिंह मेरी राय में बेहद बढ़िया इनसान और हॉकी ओलंपियन थे लेकिन उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। वह बतौर खिलाड़ी कहते थे बतौर फुलबैक प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी उनके सामने गेंद लेकर नहीं निकलना चाहिए। वह जब पीएयू में होते तो लड़कियों का उन पर भरोसा कर वी जी कहना और   उनका यह प्यारा सिंह को लेकर यह विश्वास की उन्हें सही राह पर ले आएंगे, उनके खुद पर भरोसा को जताता है।‘
वहीं अजायब सिंह टिवाना जिन पर हॉकी ओलंपियन पृथी पाल सिंह की हत्या की साजिश रचने का आरोप है यह कह कर इसे खारिज करने की कोशिश की वह घटना के दिन शहर में थे ही उन्हें पुलिस ने बेवजह फंसाया है।

YuvaSahakar Desk

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