
काशी के पवित्र घाटों पर आयोजित काशी तमिल संगमम 3.0 वास्तव में गंगा और गोदावरी के मिलन जैसा अनुभव कराता है।
देश-दुनिया में अभी प्रयागराज में संगम तट पर चल रहे महाकुंभ को लेकर भारतीय संस्कृति की चर्चा हो रही है। तीन नदियों के संगम में करोड़ो सनातनी आस्था की डुबकी लगा चुके हैं। यह क्रम जारी है। 26 फरवरी को महाशिवरात्रि के दिन तक यह सिलसिला हमें देखने को मिलेगा। इसी बीच 15 फरवरी से प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के संसदीय क्षेत्र काशी में गंगा तट पर काशी तमिल संगमम 3.0 का चल रहा है। अपने तीसरे संस्करण में यह 24 फरवरी तक सनातनियों के लिए आत्मीय संबंध को एक नया आयाम देगा।
दरअसल, काशी के पवित्र घाटों पर आयोजित काशी तमिल संगमम 3.0 वास्तव में गंगा और गोदावरी के मिलन जैसा अनुभव कराता है। गंगा घाटों पर जब तमिलनाडु और दक्षिण भारत के श्रद्धालु पहुंचते हैं, तो यह केवल एक यात्रा नहीं, बल्कि संस्कृतियों के अभूतपूर्व संगम का उत्सव बन जाता है। काशी तमिल संगमम 3.0 इस भावनात्मक और सांस्कृतिक एकता का सजीव उदाहरण है, जहां दक्षिण और उत्तर भारत की परंपराएं एक-दूसरे में समाहित होती नजर आती हैं।
यह केवल एक सांस्कृतिक आयोजन नहीं, बल्कि भारत की दो प्राचीन और समृद्ध सभ्यताओं का आत्मीय संगम है। जब गंगा के किनारे लोग एक-दूसरे को “वणक्कम काशी“ कहकर संबोधित करते हैं, तो यह एक अनूठा और भावनात्मक अनुभव बन जाता है। काशी तमिल संगमम 3.0 न केवल उत्तर और दक्षिण भारत के बीच एक संस्कृति सेतु का कार्य कर रहा है, बल्कि यह “एक भारत, श्रेष्ठ भारत“ की अवधारणा को भी साकार कर रहा है। यह आयोजन यह सिद्ध करता है कि भारत की विविधता ही उसकी सबसे बड़ी शक्ति है, और इसी एकता में ही हमारी संस्कृति की सच्ची पहचान निहित है।
यह संगमम 3.0 भारतीय परंपराओं, संस्कृतियों और जीवन मूल्यों का उत्सव है, जो विविधताओं के बीच राष्ट्रवाद की भावना को और प्रबल करता है। यह उत्तर और दक्षिण भारत के बीच सांस्कृतिक सेतु के रूप में कार्य कर रहा है। जब तमिलनाडु से यात्री वाराणसी रेलवे स्टेशन पर उतरते हैं, तो उनका स्वागत “हर हर महादेव“ के जयघोष से किया जाता है। ढोल-नगाड़ों की थाप, स्वस्तिवाचन और पुष्पवर्षा से हर यात्री स्वयं को विशिष्ट अनुभव करता है।
कांचीपुरम, जिसे संक्षेप में कांची कहा जाता है, तमिलनाडु का एक महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र है। यह क्षेत्र हिन्दू धर्म के प्राचीन तीर्थ स्थलों में से एक है और यहां कई ऐतिहासिक मंदिर स्थित हैं। कांची, जो पलार नदी के किनारे बसी है, न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि अपनी रेशमी साड़ियों के लिए भी प्रसिद्ध है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, ब्रह्माजी ने यहां देवी के दर्शन हेतु तपस्या की थी। कांची को मोक्षदायिनी सप्त पुरियों में स्थान प्राप्त है, जिनमें अयोध्या, मथुरा, द्वारका, हरिद्वार, काशी, उज्जैन और कांची शामिल हैं। यह नगरी हरिहरात्मक पुरी के रूप में प्रसिद्ध है, जहां शिवकांची और विष्णुकांची नामक दो भागों में विभिन्न मंदिर स्थित हैं।
सदियों से तमिलनाडु के लोग काशी की यात्रा करते आए हैं। उनके लिए काशी केवल एक तीर्थ नहीं, बल्कि आध्यात्मिक आकर्षण का केंद्र है। भगवान विश्वनाथ, मां गंगा और देवी विशालाक्षी सदियों से तमिल भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करती रही हैं। आदि शंकराचार्य के काशी आगमन और उनके द्वारा अद्वैत वेदांत के प्रचार के बाद, तमिल संतों का काशी से लगाव और गहरा हो गया। इस पवित्र नगरी ने अनेक संतों और महात्माओं को आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदान की है, जिसका प्रभाव आज भी तमिल समाज में देखा जा सकता है।
काशी का तेलुगु संस्कृति से भी गहरा नाता है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से हर वर्ष बड़ी संख्या में श्रद्धालु काशी आते हैं। तेलुगु संतों और आचार्यों ने भी इस नगरी को विशेष रूप से गौरवान्वित किया है। तेलुगु संत तेलंगस्वामी, जिनका जन्म विजयनगरम में हुआ था, को स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस ने काशी का “जीवंत शिव“ कहा था। इसके अलावा, जिद्दू कृष्णमूर्ति और अन्य महान संतों को आज भी श्रद्धा के साथ याद किया जाता है।
काशी और तेलुगु संस्कृति का संबंध साहित्य और आध्यात्मिक परंपराओं में भी स्पष्ट रूप से झलकता है। आंध्र प्रदेश के वेमुलावाड़ा तीर्थ को “दक्षिण का काशी“ कहा जाता है, और यहां की मंदिर परंपराओं में “काशी दारम“ (विशेष काला सूत्र) का प्रचलन आज भी है। इसी प्रकार, तेलुगु साहित्य में “काशीखंडम“ जैसे ग्रंथ काशी की महिमा का बखान करते हैं।
समय के साथ काशी में भी व्यापक बदलाव हुए हैं। बाबा विश्वनाथ धाम का पुनरुद्धार, गंगा घाटों का नवीनीकरण और बेहतर परिवहन सुविधाओं ने काशी यात्रा को और सुगम बना दिया है। पहले जहां दशाश्वमेध घाट तक पहुंचने में घंटों लगते थे, वहीं अब हाईवे और नई परिवहन व्यवस्थाओं से यह समय काफी कम हो गया है। गंगा में अब सीएनजी चालित नावें चलाई जा रही हैं। इन आधुनिक सुविधाओं के बावजूद, काशी की आत्मा और इसकी सांस्कृतिक विरासत आज भी जीवंत बनी हुई है।
काशी आने वाले श्रद्धालु यहां के धार्मिक स्थलों के साथ-साथ बनारसी खानपान का भी आनंद लेते हैं। लस्सी, ठंडाई, चाट, लिट्टी-चोखा और बनारसी पान जैसे पारंपरिक स्वाद काशी यात्रा को और यादगार बना देते हैं। वाराणसी के लकड़ी के खिलौने आंध्र प्रदेश के एटिकोपाका खिलौनों की तरह ही प्रसिद्ध हैं, जो भारतीय हस्तशिल्प की समृद्ध परंपरा को दर्शाते हैं।
काशी केवल एक शहर नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिक चेतना का केंद्र है। बाबा विश्वनाथ, काल भैरव, मां अन्नपूर्णा, देवी विशालाक्षी, आंध्र के मल्लिकार्जुन और तेलंगाना के भगवान राजराजेश्वर जैसे तीर्थस्थल भारत की सांस्कृतिक पहचान को परिपूर्ण बनाते हैं।